कई लोग चले थे साथ मेरे….
हर राह रही थी भीड़ भरी…
कई वादे साथ चले..
कई उम्मीदें साथ चलीं..
कितनो के कांधों पे रोया..
कितनों कि हंसी में खोया..
कितने नीले घूँट पिये..
कितने लाल नहाया….
कभी अपने ही साए में सिमटा…
कभी दूर गगन तक छाया..
न जाने कितने देस फिरा…
न जाने कितने भेस धरे…
देव चले कभी संग मेरे..
कभी मुझ जैसों ने भी हाथ धरा…
पर भीड़ रही हर राह गुज़र..
अब उसी भीड़ का किस्सा हूँ..
जहां कोई नहीं अब मेरा है…
न मैं किसी का हिस्सा हूँ…
न कोई यहाँ अब हँसता है…
और आँसू भी आँख चुराते हैं…
खुद से ही अब मैं डरता हूँ…
उस भीड़ में छुप के रहता हूँ…
हर वक़्त चला जो साथ मेरे…
मैं अब उसी भीड़ का हिस्सा हूँ…
-नफीस.
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